दोहे           


मातृ मूल्य समझे नही, देख  गजब संजोग
अपनी     माता छोड़ के, पाहन  पूजत लोग

दोनों की महिमा  बड़ी, किसका करूँ बखान
माँ  धरती  के  तुल्य  है,पिता आसमाँ जान

     कुण्डलियाँ      

नंगे  पग, तपती  धरा,मास  रहा  जब  जेठ
भिक्षा   मांगी  मात  ने, भरा  पुत्र  का  पेट
भरा  पुत्र  का  पेट,रही सब  दिन  वह भूखी
अंतड़ियों   में  आँट, पिंडली  थककर  दूखी
कहो    पुत्र    उत्कर्ष,मात  ममता  की गंगे
रही   कष्ट   में  आप,रहे  थे जब तुम नंगे
(2)
भूखी   बैठी   मात  घर,पाहन  पूजत   लोग
देख   विधाता  सृष्टि  पर,कैसा  फैला   रोग
कैसा   फैला   रोग,देख   सब  स्वांग  रचाते
निज सुत ही मुँह मोड़,मात को खूब छकाते
खोल  नयन  उत्कर्ष,बेल  रिश्तों  की  सूखी
मंदिर   मस्जिद   छोड़,मात  घर  बैठी भूखी

 ✍नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”
श्रोत्रिय निवास बयाना,राज
Utkarsh Kavitawali
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Utkarsh Kavitawali
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