छंद : कुण्डलियाँ  

Chhand :Kundaliyan 

(1)
छंद    रचो   ऐसे  सभी, पढ़त   सुनत       आनंद
हिंदी     का   उत्कर्ष   हैं, हिंदी        वाले       बंध

हिंदी          वाले    बंध, शिल्प  जिनका है रोचक

गति, यति, लय हैं अंग, पढ़े   लेखक   या  पाठक
सुन     नवीन   उत्कर्ष, बसी    माटी   की  सुगंध
अद्भुत  है   यह    पद्य, शास्त्र  कहते   जिसे छंद

(2)
माया   के     पीछे  पड़े, भूले       जीवन      सार
अपनों  से  अपनें  यहाँ, कर        बैठे      तकरार
कर     बैठे       तकरार, प्रेम   का    रिश्ता   टूटा 
बढ़ी    यहाँ   तक  बात, शीश   तक  इसमें  फूटा

देख     लोभ     उत्कर्ष, मात   का  दूध  लजाया

द्वेष,  पाप,   अपमान,  साथ   लाती   है   माया
(3)
तिनका   तिनका  जोड़  खग, नीड़  बुनै  बहु बेर
को   जाने   कब  तक  रहै, को   जानै  कब   ढेर
कौ   जानै   कब  ढेर, मगर  फिर  भी  है  बुनता
हर पल  जीवन  आस, लिये  तिनका  है  चुनता
सुनो !  मित्र  उत्कर्ष, निराशा अवगुण  मन   का
आशाओं  से  जुड़ा, यहाँ   पर   तिनका   तिनका

(4)
रीते      कर   आते     सभी, रीते    ही  प्रस्थान
सब    जाने  इस  बात को, पर  देते  कब ध्यान
पर     देते   कब   ध्यान, मोह  का  जादू   ऐसा
राम    रतन   को  भूल, मूल  मानें   सब   पैसा
कहो  ! मित्र  उत्कर्ष, सभी  क्यों  धन को जीते
राम   नाम  धन  सत्य,  राम  बिन  सब है रीते
(5)

काँधे     पर    बोझा    पड़ा, चलूँ   कौनसी   चाल

सबके   मन  की  राखि  कैं, करता  रहूँ     कमाल

करता        रहूँ      कमाल, कमाई   करनी  भारी
हो    तब   ही   वह   पूर्ण, रही  जो   आस  हमारी
सुन     नवीन   “उत्कर्ष”, सभी  को  रखना  बाँधे
काज   उन्हें  यह  मिला, सबल  जिनके  थे काँधे

(6)
गर्मी    पड़ती  जोर  की, निशदिन   बढ़ता  ताप
छाँव      नही  ढूंढे मिले, उड़ता  जल  बन  भाप

उड़ता   जल बन भाप, कठिन  जीवन अब माने

वृक्ष     लगा,   क्षय  रुके, मूल्य  वृक्षो  का  जाने
सुनो     मित्र     उत्कर्ष, ओढ़ते     क्यों    बेशर्मी
अभी     हुई     शुरुआत, बाद    बाकी   है   गर्मी
(7)
करता   हित  ये   लोभ भी, जानो   भैया   आज
इसके      आते     ही    बने, अटके   सारे  काज
अटके     सारे     काज, बनाता वश  में कर मन
रसना    रस  में लिप्त, दिखा बस नैनो को धन
सुनो     !  मित्र  उत्कर्ष, इसी   से काज सँवरता
लोभ    जरूरी   आज, मूर्ख  वह जो नहि करता
(8)
गाड़ी    लाडी  और की, मन  कूँ    सदा   लुभाय 
चाहे     चोखी  आपनी, पर   मन  मानत   नाय
पर   मन  मानत नाय, नैन   औरन   कूँ  घूरत 
अरसै     सदा   नवीन, नैन अरु मन की ई लत 
धरौ     ध्यान   उत्कर्ष, आप  की  आवैं   आड़ी 
औरन     कौ   का  ओर, रहे   लाड़ी   या   गाडी
(10)
रूप    सुहाना   रात  में, दिन   में कुछ अवतार 
पत्नी     मेरी   कर   रही, मित्रो    ऐसा     प्यार 
मित्रो      ऐसा   प्यार, समझ  लीला  नहि पाया 
झाड़ू      पोछा   आज,  हसीना    ने    लगवाया 
लिखे       हाल    उत्कर्ष, बना     बेदर्द  जमाना 
मुझको    दी  क्यों  सजा, दिखाकर रूप सुहाना 

Utkarsh Kundaliyan
Utkarsh Kundaliyan Chhand