उत्कर्ष दोहावली 

 [UTKARSH DOHAWALI) 

दोहा छंद विधान : तेरह ग्यारह मात्रा भार के चार चरण प्रत्येक ग्यारहवीं मात्रा वाला वर्ण लघु , समचरण तुकांत

राधेश्याम     कृपा    करो, काटो   भव  के फंद
तबहि मजा ब्रज बास कौ, और   मिले   आंनद



गिरिधर  तेरे   ही    सभी, पत्ता,  डंठल,  मूल
मैं   केे   वश,  मेरा   कहा, गया  सत्य  मैं भूल


सब जग का पालन,किया, अपने   हाड़ निचोड़
माँ की   ममता  का  नहीं, भाव जगत  में तोड़


भावों   की   ही   भक्ति है,  भावों  के भगवान
बिना भाव सब शून्य हैं, रे ! मानस रख ध्यान


श्रद्धा   के     वश श्राद्ध हैं, भाव   लिये   तासीर
सौ  -  सौ  भोग  लगाइये, मृतक खाये न खीर


ओटक  की है लक्ष्मी, बिना  ओट  नहि   मान
ओटक  ही  उत्कर्ष हैै, ले    मूरख    ये    जान


रही  जवानी  मद  भरी, लेना   कदम  सँभाल

बाद   ढले, सँभले  नही, डुगले  तन मन चाल

मित्र   बने   हमको  हुआ, एक  वर्ष   है  आज
सच    में   तेरी   मित्रता, मेरे  सिर  का  ताज

मार्ग चुना  अच्छा  अगर, बने  एक  के  लाख
बुरे   मार्ग   खोये    सभी, हाथ लगे नहि राख

साँच  गुरू   बू   ही रहा, जो गुण - दोष बताय
बाकी सब ढोंगी  समझ, चोला  लिये    रँगाय

काम करौ सब जोर  कौ, काम  करौ  ले  जोर
काम फले फिर जोर कौ, नहीं  जोर  कौ  तोर

बुरा - भला  जैसा करो, करो कर्म , धर ध्यान
मध्य कभी रहना नहीं, मध्य   कहाँ  पहचान

ईश्वर  पर   निष्ठा  रखो, आये   नहीं   खरोंच
दाना    भी   देगा    वही, जिसने  दी यह चोंच

ज्ञान  जगत  को बाँटते, स्वयं    रहे   पर  दूर
श्रेष्ठ स्वयं को   मानते,  कैसें ?  कहौ    हुजूर

कोरी कर मत कल्पना, व्यर्थ  बजा  मत गाल
ध्यान परे रख श्वान से, चल  हाथी  की  चाल

कीकर  की   ले बाँसुरी, कृष्ण  रहे   सुर  तान
मोहित सारा जग हुआ,सुन मोहक, मृदु  गान


हार कभी नहि मानता, घर  हो  या  खलिहान
श्रम का ही मांगे  सदा, ऐसा     वीर   किसान



धूप   पड़े  गर्मी  लगे, चाहे    बहता       शीत
हलधर वीर महान तू, श्रम   से   लेता    जीत

भूख प्यास सब भूल कर, करता रहता   काम
धरती   कावो  लाल  है, हलधर जिसका नाम

बाधाओं   के  दौर  में, काम   करे   धर  धीर
पेट पीठ मिल एक है, तन     पर  नाही  चीर

बात अधूरी सार बिन, पहचानो  क्या    सार
और भले सब भूलना, लीजै      सार   समार

झूठ  फले   फूले  भले, पाता  सच  ही  जीत
करो सत्य का सामना, डरो  नहीं  तुम  मीत
सत्य क्या है  पहचानो
सत्य सूरज सम जानो

व्यंजन लघु सब जानिये, क्ष, त्र, ज्ञ को छोड़
आ, ई, ऊ, ए, दीर्घ अरु,ओ औ अं, अः  जोड़

याद  मात्रायें रखिये
बाद छंदों को रचिये

तन कूँ मन ते जोड़ि लैे, बाद  लक्ष्य  कूँ भेद
तन मन के अलगाव पै, होय  बहोतइ  खेद

राम  नाम   जपते  चलो, राम लगाये   पार
राम  सृजक,नाशक यही, पोषक  पालनहार

राम   नाम ही आदि है, राम   नाम   ही अंत
राम  नाम के जाप से, बाल्मीकि   हुए  संत

राम नाम  अनमोल है, राम   रतन   संसार
राम,  राम  का राम  है, जप   ले   बारम्बार

भाव   सभी   में  है  भरे, भावो से     गठबंध
भाव   सदा भावुक करें, भाव   बने   आनंद

भाव नही जिसके हृदय, पत्थर  मूरत मान 
भाव मूल   इंसान   की, भाव  बने पहचान

वसुधा पर निपजे सभी, कंचन पाहन   रेत
मूल्य यहाँ गुणभूत ही, चुनो मीत कर चेत

राम नाम  आराध्य का, राम,  राम का राम
फिर क्यों इसको भूलते, जप लो आठो याम


अपनी हद में तुम रहो, सुन लो यार  नवीन

सबके सब  आंती  हुए, सबके सब अब दीन


सागर सम हिरदै रखो, करो धरा सम प्यार
अम्बर के नीचे    बसा, अपना  ही  परिवार

परिश्रमी की  भोर  है, अलसाये    की  शाम
हम तो ठहरे  बीच के, भजें  राम   का  नाम

जीव ईश   के   मेल  को, कहते जीवन जान
भजन मित्र भव बीच का, भैया  देना ध्यान

प्रेम रहा नहि प्रेम अब, प्रेम    बना   व्यापार
प्रेम अगर वह प्रेम  हो, प्रेम    करे    भवपार

प्रेम संग   पेशा   मिला, हुआ बाद फिर प्यार
प्यार प्यार कर ठग रहे, अब  सारे   नर नार

महँगाई नित बढ़ रही, कैसे   लगे      विराम
आय नहीं उतनी  रही, जितने   से   हों काम

द्वेष भाव पलने लगा, नहीं   प्रेम   का नाम

लूट-मार, अपराध पर, कैसे   लगे     विराम

इधर रहो या फिर उधर, रहो   कोउ  सी पार
भँवर बीच रहना    नहीं, लोगे   काम बिगार

मिले अमीरी कुल भले, करो   नहीं    आनंद
देख भरा छत्ता, मधुप, छोड़े    कब  मकरंद


मान जीव निर्जीव का, रखो   रखें  यह मान
जो  मर्यादा    लांघता, टूटे   मन  अभिमान

बाट जोहती   प्रेमिका, पर,    प्रेमी   परदेश
विरहन रजनी छेड़ती, मन   भरके   आवेश

जब से प्रीतम हैं   गये, साधे     बैठे    मौन

सन्देश न भेजा पत्र ही, किये   न  टेलीफोन

सौतन कोई भा  गयी, या  फिर   छूटा मोह
इतना बतला दो मुझे, डसता नित्य विछोह


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Naveen Shrotriya
Utkarsh Dohawali