!! बचपन !!

[ मत्तग्यन्द/मालती सवैया ]

(प्रथम)
बालक थे जब मौज रही,मन  चाह  रही  वह पाय रहे थे ।
खेल लुका छिप खेल रहे,मनमीत   नये   हरषाय  रहे  थे ।
चोट  नही  तन  पे  मन पे,उस वक़्त खड़े मुस्काय रहे थे ।
रोक  रहो  कब कौन हमें,सब आपहि प्रीत लुटाय रहे थे ।
(द्वितीय)
वक़्त  बढा  अपने  पथ  पे,हम  बाद  चले गुरु ज्ञानहु पाने ।
बाल  सखा  सब  छूट  गए,अब मित्र बने सब ही अनजाने ।
हाथ  किताब  थमाय  दई,पढ़  पाठ  हमें फिर  प्रश्न बताने ।
बाल  पना  बिसराय  बढ़े,जग  रीति  लगे हम भी अपनाने ।
✍नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”