लिए  कंचन  सी' काया  वो,उतर  आई  नजारों  में ।

करें   वो   बात  बिन  बोले,अकेले   में   इशारो  में ।

बिना देखे कही पर भी,मिले नहिं चैन अब मुझको ।
       
गगन  के  चाँद  जैसी  वो,हसीं  लगती  हजारों  मे ।

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बसे हो इस कदर दिल में,भुला  तुमको न पाएंगे ।

चलेंगी साँस  ना  फिर ये,तुम्हे  जो  भूल  जाएंगे ।

सदा से ही अभी तक तुम,रहे मन मीत  मेरे  इक ।

दिलो  की  प्रीत  को  ऐसे,सदा दिल से निभाएंगे ।

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सभी करते मो'हब्बत  पर,झलकता  प्रेम ये कैसा ।

मो'हब्बत प्रीत है दिल की,रखो इसको सदा वैसा ।

करो  गन्दा  न  इसको  तुम,जमाने की निगाहों में ।

मोहब्बत  है  सदा  पावन,नही  दूजा  मिले  ऐसा ।

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मुझे अब ज्ञान दो तुम माँ,मिटे  अज्ञानता  वर  दो ।

विराजो  कंठ   में   माता,मधुर भाषी मुझे कर दो ।

चलूँ  मै साँच के पथ पर,नही हो झूठ मन में फिर ।

हरो  मन  दंभ  को माता,हृदय  निर्द्वंद्वता  भर दो ।

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✍नवीन श्रोत्रिय “उत्कर्ष”