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डगर   कौनसी   चल   के  आया
पथ       की        ना     पहचान
कि अब तो राह सुझाओ सुजान

चहुँ    दिशि   ही  माया  का साया
माया      ने   मन   को   भटकाया
रहा         न        ज्ञान      गुमान
कि अब तो राह सुझाओ सुजान-२

उर    भीतर    तो   द्वेष   भरा  है
प्रेम    आज     पाखण्ड   बना  है
अपना     अपनों  ने   ही छला   है
नारि  नहीं  ज्यों   कोई   बला  है

आने     वाला     वक्त     बुरा   है
भली           करे            भगवान
कि अब तो राह सुझाओ सुजान-२

कुछ  ने  कुछ को  सबकुछ त्यागा
मिला   न  जिसको  बड़ा  अभागा
पाया     जग   में    केवल   उसने
जिसने        किया          सम्मान
कि अब तो राह सुझाओ सुजान-२

मन्दिर   मस्जिद    गिरिजाघर में
वास    तुम्हारा   है  कण - कण में
कहीं     गेरुआ   हरा    कहीं   क्यों
श्वेत,         नील            परिधान
कि अब तो राह सुझाओ सुजान-२

कहीं   स्वादु    कहीं   संत   रमे हैं
कहीं      गृहस्थी      राम   जपे हैं
खोज  रहे   आखिर  क्या सब  ही
रच      नव       नीति      वितान
कि अब तो राह सुझाओ सुजान-२

द्वार   तुम्हारे      जो  भी   आता
कुछ   न   कुछ  वह   लेकर जाता
चाहत     मेरी     मैं    भी     पाऊँ
जगतनियन्ता     तुम्हें     मनाऊँ

लिखे   छंद   “उत्कर्ष” और  नित
करता               रहे        गुणगान
कि अब तो राह सुझाओ सुजान-२

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